हाइफा युद्ध: इजराइल में लड़े भारतीय शूरवीरों के युद्ध के शौर्य की कहानी|

हाइफा युद्ध: इजराइल में लड़े भारतीय शूरवीरों के युद्ध के शौर्य की कहानी| 

मानक चित्र

इतिहास का एक ऐसा पन्ना भारतीय इतिहास से इतिहासकारों ने इस तरह से गायब किया कि विदेशी सरजमीं पर महान भारतीय योद्दाओं द्वरा लरे गए एक महान युद्ध को शायद ही कोई भारतीय जनता होगा| जबकि इस युद्ध को, इस युद्ध के रणबांकुरों को हमें पढ़ाया जाना चाहिए था|

यह कहानी है ऐसे रणबांकुरों की जिन्होंने बिना आधुनिक हथियारों के सिर्फ तलवारों और भालों से तत्कालीन विश्व के अग्रज और सुविधा संपन्न तिन तिन राष्ट्रों की आधुनिक सेना से ना सिर्फ युद्ध किया बल्कि महज एक ही दिन में युद्ध जित भी लिया और महज इसी एक दिन में in रणबांकुरों ने इजराइल में 400 वर्ष पुराने ऑटोमन साम्राज्य का अंत कर इजराइल को आजादी भी दिला दी

विश्व इतिहास इसे हाइफा युफ्द्ध के नाम से जाना जता है| इस महान युद्ध में 900 भारतीय सैनिको ने अपने प्राणों की आहुति दी थी| हाइफा युद्ध अपने आप में मानव इतिहास का सबसे महान और अपनी तरह का आखिरी युद्ध था| भारतीय वीर सैनिकों के महान शौर्य को समझने के लिए हमें विश्व इतिहास से हाइफा युद्ध के पन्नो को खंघलना होगा| विश्व इतिहास इसलिए क्यूंकि आपको भारतीय इतिहास में इस युद्ध की कहानी मिलेगी ही नहीं|

तो आइये खंघालते हैं इतिहास के उन गौरवशाली पन्नों को जिन्हें भारतीय इतिहासकारों भारत के इतिहास से ही गायब कर दिया--

इजराइल के हाइफा पर था बेरहम तुर्की सेना का कब्जा

वर्ष 1918 के नवम्बर माह में प्रथम विश्वयुद्ध के अंत की घोषणा कर दी गई थी, परन्तु समूचे विश्व बारूद, नफ़रत और अविश्वास ने अपना साम्राज्य फैला लिया था| विश्व को कोई भी राष्ट्र एक दुसरे भरोसा करने में संकोच कर रहा था| विश्व युद्ध तो ख़त्म हो चूका था परन्तु बुरी तरह बिगड़ चुके हालातों को सुधरने में अभी वक्ता था|

ऐसे में फिलिस्तीन से बिलकुल नजदीक समुद्र के किनारे बसे एक शहर पर तुर्की और जर्मनी की सेना ने अपना कब्ज़ा जमा रखा था| इसी शहर का नाम है हाइफा| अपने मजबूत रेल नेटवर्क और बंदरगाह के वजह से हाइफा युद्धक रणनीतिक तौर पर बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान था| यह स्थान युद्धक सामग्री और सैनिक भेजने के दृष्टि से अति महत्वपूर्ण था|



ब्रिटिश सरकार ने भारतीय रियासतों से माँगा मदद

स्वाधीनता से पूर्व भारतीय सैनिको का एक विशाल हिस्सा ब्रिटीश| सेना के अधीन थी| ऐसे में हाइफा को तुर्की और जर्मनी की सेना से मुक्त करवाने की जिम्मेदारी ब्रिटिश सेना को मिली परन्तु ब्रितानी सेना को यह जंग बड़ा ही मुश्किल लग रहा था क्युकि शत्रु की सेना संख्याबल और आधुनिक हथियारों के मामले में ज्यादा शक्तिशाली थी|

जब भारत में रह रहे ब्रिटिश सेना को हाइफा को मुक्त करवाने की जिम्मेदारी मिली तब वहाँ पर तुर्की, जर्मनी और आस्ट्रिया की संयुक्त सेना की सैनिक चौकियां थी| तीनो ही सेना तत्कालीन आधुनिक हथियारों से लैश थी, तोप, गोला ,बारूद, बन्दुक आधुनिक मशीन गन किसी भी चीज़ की कमी उस त्रिशक्ति सेना के पास नहीं थी|भारत में कार्यरत ब्रिटिश उच्चाधिकारियों को अतिरिक्त जाबांज सैनिकों की जरुरत थी,  तब उन्होंने भारत के तिन रियासतों, हैदराबाद, मैसूर और जोधपुर के राजाओं से मदद मांगी| निजाम की सेना का बड़ा हिस्सा पूर्व से ही ब्रितानी सेना के अधीन था|



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भारत के in रियासतों ने ब्रिटिश अधिकारीयों के अपील को स्वीकार किया और अपनी अपनी सेना से कुल मिलकर लगभग 1,50,000 सैनिक जंग के लिए भेजें| 

चुकीं हैदराबाद के रियासत से आये सैनिक मुश्लिम थे इसलिए अंग्रेजों ने उन्हें युद्ध में शामिल नहीं किया| निजाम के सैनिक टुकड़ी को युद्ध बंदियों के देखरेख के लिए न्युक्त किया गया और जोधपुर तथा मैसूर के सेना की घुड़सवार सैनिको की टुकड़ियों को मिलाकर एक विशेष युद्धक इकाई बनाया गया|

इस विशेष युद्धक सेना की वर्दी भले ही ब्रितानी थी, भले ही इस सैन्य टुकड़ी के पास झंडा ब्रिटिश सरकार का था पर वे सैनिक, उनकी शौर्य, उनकी वीरता और विजय यात्रा की भूख पुर्णतः भारतीय थी| ये सैनिक यह नहीं जानते थे कि इस युद्ध से ब्रिटिश सरकार को क्या लाभ मिलने वाला है, वे तो बस खुद ही के देशवासियों की तरह बेबस मजबूर और गुलामी के जंजीर में जकड़ें लोगों को एक दमनकारी और क्रूर सेना स्वतंत्र करवाना चाहते थे|

अंग्रेज सैनिक पीछे हटें, परन्तु भारतीय जाबांजों को यह मंजूर नहीं था

भारतीय सैनिकों की इस विशेष युद्धक सैन्य टुकड़ी के पीछे कुछ अंग्रेज सैनिक भी थें, ब्रिगेडियर जेनरल एडीए किंग ने जैसे हिन् दुश्मन सेना की विशालता और विकरालता के बारे में सुना एवं जैसे ही उसे यह ज्ञात हुआ की दुश्मन सेना तत्कालीन आधुनिक हथियारों से लैश है उनकी हिम्मत जवाब दे गई और वे यह समझ गए कि अगर सेना युद्ध के लिए अन्दर गई तो उनका लौट कर आना असंभव है, अतः उन्होंने ब्रितानी सेना को जंग न लड़ने का आदेश दिया| अग्रेज सैन्य टुकड़ी पीछे हट गई| हालाँकि पीछे हटने का मौका भारतीय सैनिको के पास भी था  परन्तु भारतीय सैन्य टुकड़ी के मेजर दलपत सिंह शेखावत के नेतृत्वा वाली सेना का एक भी भारतीय जाबांज अपनी फर्ज से गद्दारी करने को राजी नहीं हुआ| सभी ह्रदय में बीएस एक ही प्रश्न था की यदि आज पीछे हेट तो कल अपने अपने परिवारों, लोगों और रियासत को क्या मुह दिखायेंगे| इसलिए भारतीय जाबांजो की इस विशेष सैन्य टुकड़ी ने अन्दर जाकर युद्ध करने का फैसला लिया|

हाइफा युद्ध के भारतीय रणबांकुर


भातिये सैनिको में ज्यादातर घुड़सवार थे, इनके भाले और तलवारे ही थीं| कुछ पैदल सैनिक भी थे जिन्हें अंग्रेजी हुकूमत द्वारा कुछ पुराणी बंदूकें दी गईं थी| 

भारतीय घुड़सवार सैनिको को दो अलग स्थानों माउंट कारमेल पर तैनात तुर्की तोपों को और हाइफा में विशाल तोपखानों को बर्बाद करना था| साड़ी रणनीति तैयार हो चुकी थी, जोधपुर लंसर्स के सैनिको ने अपने सेनापति मेजर दलपत सिंह शेखावत के अगुआई में सबसे आगे शहर में कदम रखा|

सिर्फ एक दिन और शत्रु सेना को कर दिया नेस्तनाबूत

मेजर दलपत सिंह शेखावत के नेतृत्वा में जो घुरसवार सैनिको की टुकड़ी थी 15वीं (इम्प्रियल सर्विस) घुरसवार ब्रिगेड के नाम से जानते है| यह ब्रिगेड अहले सुबह 5:00 बजे हाइफा शहर के ओर रावण हुआ और दिन के 10:00 बजते बजते शहर के मुख्या द्वार थ पहुँच गया| इसके बाद योजना के अनुरूप भारतीय सैनिकों की इस घुड़सवारी सैन्य दल ने अचानक ही शत्रु सेना पर हमला कर दिया| इससे पहले की तुर्की, जर्मनी और आस्ट्रिया के सैनिक कुछ समझ पाते भारतीय सैनिको ने अपनी बन्दूको का मुह दुश्मन सेना की तरफ के खोल दिया और ताबड़तोड़ गोलियां बरसानी शुरू कर दी 

एक तरफ मैसूर के जाबांज सैनिक मात्र भालों और तलवारों से माउंट कारमेल पर शत्रुओ के प्राण हर रहे थें वही दूसरी तरफ जोधपुर रियासत के सैनिकों ने पर्वत के उतारी तरफ से जोरदार हमला कर दिया| बीएस फिर क्या था इसके बाद बाकी की पूरी घुड़सवार सेना तीव्रता से शहर में दाखिल हुई और शत्रु सेना के सैनिको को सिर्फ तलवार और भालों से हिन् मौत के घात उतरना शुरू कर दिया|  शुरुआत में तुर्की की सेना बुरी तरह से घबरा गई थी परन्तु जल्द ही सम्हाल गई और मशीनगन से मोर्चा सम्हाला और भारतीय घुड़सवार सैनिको को निशाना बनाना शुरू कर दिया|

विश्व इतिहास में घुड़सवार सेना द्वरा लड़ा गया यह सबसे महँ युद्ध था, युद्धक घोडें गोलियों से घायल होने के बावजूद बिना रुके अपने सवारों के साथ मिलकर युद्ध कर रहें थे| चरों ओर से भारतीय सैनिको पर गोलियों की बरसात होने लगी, भारतीय सैनिक एक एक कर धरती पर गिरते जाते और अपने साथ 2-3 को गिराए भी जाते थे|

युद्ध में अचानक से यू टर्न तब आया जब मैसुर लांसर्स के एक जाबांज स्क्वाड्रन शेरवूड रेंजर्स ने दक्षिण दिशा से माउंट कार्मल पर आक्रमण कर दिया और दुश्मन सेना की दो नौसेनिक तोपों पर अपना कब्ज़ा कर लिया| इसके बाद जो हुआ उसने शत्रु को दांतों टेल उंगुलिया चबाने पर मजबूर कर दिया| भारतीय सैनिको ने शत्रु सेना यानि की तुर्की सेना के हथियार से उनपर ही धावा बोल दिय| शत्रु सेना यह देख कर हैरान थी की कैसे भारतीय सैनिक उनकी ही हथियार से उन्हें ही मौत के घात उतार रहें है|

अब युद्ध अपने हक में था| दोपहर 2 बजे के करीब जोधपुर लांसर्स ने अपनी बाकी बची घुड़सवार सेना को शहर के अन्दर दाखिल किया और दोपहर 3 बजे बजे तक तुर्की सेना के अधिकांस सैन्य चौकी बर्बाद हो चुके थे और बाकी बचे चौकियों पर कब्ज़ा किया जा चूका था| शाम के 4 बजते बजते युद्ध ख़त्म हो चूका था और इजराइल का हाइफा शहर तुर्की की बर्बर और बेरहम सेना की गुलामी से आजाद हो चूका था|

भारतीय सैनिको का शौर्य देख अंग्रेज अधिकारी भी नतमस्तक थे

हाइफा के इस महान युद्ध में 900 भारतीय सैनिको ने फर्ज की राह में अपने प्राणों की आहुति दी| भारतिए सैनिको ने 11 मशीनगन, 17 तोपें और हजारों की संख्या में जिन्दा कारतूस जब्त किये, इतना ही नहीं इन्होंने करीब 700 जर्मन और तुर्क सैनिको को युद्ध बंदी भी बनाया| अदम्य सहस और जबरदस्त युद्धनीति दिखाने के लिए मरणोपरांत मेजर दलपत सिंह शेखावत को, ब्रिटिश हुकूमत ने मिलिट्री क्रॉस से सम्मानित किया| ब्रितानी हुकूमत ने कॅप्टन बहादुर अमन सिंह जोधा को भी उनकी बहादुरी के लिए इंडियन ऑर्डर ऑफ़ मेरिट पदक से सम्मानित किया| इसके अलावा सेकेंड लेफ्टिनेंट सगत सिंह और कॅप्टन अनूप सिंह को भी मिलिट्री क्रॉस से सम्मानित किया गया| 

इजराइल की जनता हर वर्ष 23 सितम्बर को हाइफा दिवस मानती है  इजराईल के स्कूल्स में हाइफा युद्ध और भारतीय सैनिकों की वीरता को पढ़ाया जाता है| येरुशेलम, हाइफा ख्यात, और रामलेह सहींत इजराइल के सात शहरों में हाइफा युद्ध के अवशेषों को रखा गया है|

हाइफा युद्ध भारतीय वीर सैनिको द्वारा लड़ा गया एक ऐसा महान युद्ध था जिसे आज सायद ही कोई भारतीय जनता होगा| भले ही इस युद्ध को विश्व के कई देशों ने अपने प्रमुख पाठ्य सिलेबस में स्थान दिया हो पर भारत के वे वीर आज भी भारतीय इतिहास के पन्नो में अपना अस्तित्वा खोज रहें है| आज भी भारत के शूरवीर भारतीय इतिहास के पन्नो में धुलगर्द हो गुमनामी में अपनी शौर्यगाथा के जन जन तक पहुँचने का इन्तजार कर रहें है|



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