परमवीर चक्र विजेता सीरिज भाग 4 : सेकेंड लेफ्टिनेंट राम राघोबा राणे
राम राघोबा राणे वीरता एवं अदम्य साहस से परिपूर्ण एक भारतीय सैनिक जिसने भारत-पाकिस्तान युद्ध 1947-48 में राजौरी सेक्टर विजय के दौरान ना सिर्फ वीरता का अद्भुत प्रदर्शन किया वरण अपनी सुझबुझ और विपरीत परिस्थियों में उचित फैसला लेने की काबिलियत से इस युद्ध में विजय मार्ग भी प्रकाशित किया|
प्रारंभिक जीवन
26 जून 1918 को कर्णाटक के कारवार जिला के हावेड़ी गाँव में जन्मे राम राघोबा राणे के पिता का नाम राघोबा पी. राणे था, जो की कर्णाटक के उत्तर कन्नड़ जिले के चंदिया गाँव में पुलिश कांस्टेबल थे| राम राघोबा के पिटा जी का सथानान्तरण इधर उधर होते रहने के कारन उन्होंने ज्यादातर शिक्षा जिला स्कूल में ही ग्रहण किया| श्री राणे किशोरावस्था में ही गाँधी के आंदोलित विचारों से खासा उत्प्रेरित थे| 1930 में वे असहयोग आन्दोलन से इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने इस आन्दोलन में भाग लेना का मन बना लिया| पुलिश कांस्टेबल पिता ने जब सुना कि उनका पुत्र भी आन्दोलन में हिस्सा ले रहा है तो वे बहुत ही चिंतित हो गए, और परिवार सहिंत अपने पैत्रिक ग्राम चंदिया वापस आ गयें|
सैन्य कैरियर:
समय था वर्ष 1940 का जब द्वितीये विश्व युद्ध अपने चरम पर था और राघोबा के गाँव चंदिया में वीर सैनिकों के पुरुषार्थ के किस्से आम होने लगे थे| राघोबा जब भी इन किस्सों को सुनते उनका गर्म खून उबाल खाने लगता| उन्होंने भी सेना में भारती होने का फैसला लिया और मेहनत रंग लाइ|
10 जिले 1940 को राम राघोबा राणे सेना के बॉम्बे इंजीनियर्स में भारती हो गए| वहाँ इनके उत्साह और दक्षता ने इनके लिए बेहतर मौक़े पैदा किए। यह अपने बैच के ‘सर्वोत्तम रिक्रूट’ चुने गए।
सर्वोत्तम रिक्रूट चुने जाने के कारन राम राघोबा को पदोन्नति मिला और वे नायक बना दिए गयें| ट्रेनिंग के बाद राघोबा 26 इंफेंट्री डिवीजन की 28 फील्ड कम्पनी में आ गए। यह कम्पनी बर्मा में जापानियों से लड़ रही थी। जब राघोबा बर्मा से लौट रहें थे तब उन्हें दो सैन्य टुकड़ियों के साथ बीच में ही रोक दिया गया| राघोबा और उनके साथियों को आदेश मिला था कि वे बुथिडांग में दुश्मन सेना के गोला बारूद को नष्ट कर दें और ओनके गाडियों तबाह कर नजदीकी सैन्य बंदरगाह पहुंचे जहाँ से उन्हें बार नेवी की जहाज से वापस आ जाना था| राम राघोबा राणे के नेतृत्व में दुश्मनों के गोला बारूद और गाड़ियों को तो सफलता पूर्वक तबाह कर दिया गया परन्तु बार नेवी की जहाज से वापसी की योजना दुर्भाग्यवस विफल हो गया|
जहाज से वापसी की योजना विफल हो गई और राम राघोबा को अपने साथियों के साथ खुद ही नदी पार करना पडा| यह एक जोखिम भरा काम था क्योकि इस नदी पर जापानियों का जबरदस्त गश्त था| जो भी हो राघोबा ने अपने सुझबुझ से दुश्मनों से नजर बचाते हुए बिना किसी नुक्सान को झेले नदी पार कर लिया और पास ही मौजूद अपने डिविजन में अपनी हाजिरी दर्ज करवा दी| यह एक बेहद ही खतरनाक और सुझबुझ भरा कार्य था इसके लिए उन्हें तुरंत हो पदोन्नत कर हवालदार बना दिया गया|
सेकेंड लेफ्टिनेंट के रूप में:
बुथिडांग और वहां से वापसी की घटना तो बीएस शुरुआत थी इसके बाद राम राघोबा राणे ने अपनी वीरता और अदम्य सहस के अनेको अध्याय लिख डाले/बना डाले| एक के बाद एक पदोन्नतियो के पाते हुए राघोबा सेकेंड लेफ्टिनेंट के रूप में कमीशंड ऑफिसर बनाकर जम्मू कश्मीर के मोर्चे पर तैनात कर दिया गया| भारतीय वीर सैनिको द्वारा पकिस्तान को हर दिन शिकस्त का सामना कर पड़ रहा था| पाकिस्तानी हमले की जवाबी कार्यवाई करते हुए नौशेरा पर झंडा गाड़ने के बाद भारतीय सेना ने अपनी निति में बदलाव लाया और रक्षा के बदले हमले की निति पर आगे बढ़ने का मन बना लिया ताकि शत्रुसेना मनोबल पूरी तरह तोडा जा सके| तय हुआ की शत्रुसेना को पीची धकेलते हुए बर्वाल हिल्स, चिन्गास तथा राजौरी हिल्स पर कब्ज़ा स्थापित किया जाय| इस अभियान के लिए नौसेरा-राजौरी से अवरोधों को हाताला आवश्यक था| एक तो यह रास्ता पहाड़ी उबार खाबर था और दुसरे पाकिस्तानी सेना ने इस मार्ग पर कई खतरनाक बारूदी सुरंगे बिछा राखी थी| इससे पहले की सेना अभियान के लिए कुंच करे यह आवश्यक था कि इस रस्ते के सारे अवरोधों को साफ़ किया जाए|
अदम्य साहस का प्रदर्शन
8 अप्रैल 1948 को ऐसे ही एक मोर्चे पर सेकेंड लेफ़्टिनेंट रामा राघोबा राणे को अपना पराक्रम दिखाने का मौका मिला। 8 अप्रैल 1948 को यह काम बॉम्बे इंजीनियर्स के इन्हीं सेकेंड लेफ़्टिनेंट रामा राघोबा राणे को सौंपा गया। दिन में काम शुरू हुआ और शाम तक रिज को फ़तह कर लिया गया। दुश्मन ने इस हार पर अपना जवाबी हमला किया लेकिन उसे नाकाम कर दिया गया। इस सफलता के लिए रामा राघोबा की विशेष बहादुरी का ज़िक्र किया जा सकता है। 8 अप्रैल से ही, जैसे ही रामा राघोबा को काम शुरू करना था, दुश्मन की भारी गोलाबारी तथा बमबारी शुरू हो गई थी। इस शुरुआती दौर में ही रामा राघोबा के दो जवान मारे गए और पाँच घायल हो गए। घायलों में रामा राघोबा स्वयं भी थे।
इसके बावजूद रामा राघोबा अपने टैंक के पास से हटे नहीं और दुश्मन की मशीनगन तथा मोर्टार का सामना करते रहे। रिज जो जीत भले ही लिया गया था, लेकिन राघोबा को पूरा एहसास था कि दुश्मन वहाँ से पूरी तरह साफ़ नहीं हुआ है। इसके बावजूद, रामा ने अपने दल को एकजुट किया और घुमाव बनाते हुए अपने टैंकों के साथ वह आगे चल पड़े। रात दस बजे वह एक-एक ज़मीनी सुरंग साफ़ करते हुए आगे बढ़ते रहे, जबकि दुश्मन की तरफ से मशीनगन लगातार गोलियों की बौछार कर रही थी।
असाधारण बहादुरी और चालाकी :
8 अप्रैल को रात 10 बजे तक लगातार जमीनी सुरंगों और अवरोधों को हटाया गया पर राघोबा का काम अभी खत्म नहीं हुआ था| अगले दिन 9 अप्रैल को तडके सुबह ही राघोबा अपने काम में लग गए और शाम तक बिना रुके रस्ते के अवरोधों को हटाते रहें| इस बीच उन्होंने एक घुमावदार रास्ता तैयार कर लिया था जिसपर टैंक आगे बढ़ सकते थें| सशस्त्र बल आगे बढ़ रहा था और आगे आगे उसकी अगुआई राम राघोबा राणे पूर्णत निडर और आक्रामक हो करते जा रहें थे| रस्ते में एक अवरोध पेंड़ो को काट क्र बनाया गया था परन्तु राघोबा ने उसे देखते ही विस्फोटकों से उड़ा रास्ता साफ़ कर लिया| हर थोड़ी थोड़ी दूर पर ऐसे ही सामान्य अवरोधों का सामना करना पड़ रहा था| इन अवरोधों को हटाने में वक्त लग रहा था शाम गहराने लगी थी|
कुछ दूर आगे बदने पर ही एक बड़ी बाधा सामने खड़ी थी, विस्फोटकों से उड़ा डी गई एक पुलिया के शक्ल में |पर राम राघोबा तनिक भी घबराए नहीं| उन्होंने इस बाधा को भी जल्द से पार करने का ठाना और काम में लग गए| तभी अचानक से दुश्मन सेना ने राघोबा की सैन्य टुकड़ी पर मशीनगन से गोलिया बरसाने लगे पर यहाँ भी राघोबा ने अपने चतुराई का प्रदर्शन करते हुए रास्ता घुमाया और अबाध्य अपने मंजिल की और आगे बढ़ गयें| अपने अदम्य सहस और चतुराई के बल पर शत्रुसेना की भरी गोलाबारी को झेलते हुए शाम होने से पहले पहले ऐसे कई अवरोधों को साफ़ करते एक ऐसे अवरोध तक पहुचे जहा दुश्मन कई चिर के पेड़ गिरे थे और उनके निचे बड़ी सी बारूदी सुरंग बनी थी ऊपर से रस्ते के दोनों छोडो पर भरी मशीनगन लगे थे जिन्होंने अपना मुह भारतीय सेना पर खोल दिया था| दोनों और से गोलियां चले लगीं, इस अवरोध को पार करना मुश्किल लग रहा था| रामा राघोबा इस बाधा को भी हटाने के लिए तत्पर थे लेकिन सशस्त्र टुकड़ी के कमाण्डर को यही ठीक लगा कि टुकड़ी का रास्ता बदल कर कहीं सुरक्षित ठिकाने पर ले जाया जाए।
इस निर्णय के साथ रात बीती लेकिन रामा राघोबा को चैन नहीं था। वह सुबह पौने पाँच बजे से ही उस मार्ग अवरोध को साफ़ करने में लग गए। दुश्मन की ओर से मशीनगन का वार जारी था। उसके साथ एक टैंक भी वहाँ तैनात हो गया था लेकिन रामा राघोबा का मनोबल भी कम नहीं था। वह इस काम में लगे ही रहे और सुबह साढ़े छह बजे, क़रीब पौने दो घण्टे की मशक्कत के बाद उन्होंने वह रास्ता साफ़ कर लिया और आगे बढ़ने की तैयारी शुरू हुई।
अगला हजार गज़ का फासला जबरदस्त अवरोधों तथा विस्फोटों से ध्वस्त तट-बंधों से भरा हुआ था। इतना ही नहीं, आगे का पूरा रास्ता मशीनगन की निगरानी में था लेकिन रामा राघोबा असाधारण रूप से शांत तथा हिम्मत से भरे हुए थे। उनमें जबरदस्त नेतृत्व क्षमता थी। वह अपनी टुकड़ी का हौसला बढ़ने में प्रवीण थे और अपनी टुकड़ी के सामने अपनी बहादुरी एवं हिम्मत की मिसाल भी रख रहे थे, जिसके दम पर उनका पूरा अभियान उसी दिन सुबह साढ़े दस बजे तक पूरा हो गया। सशस्त्र टुकड़ी को तो निकलने का रास्ता राघोबा ने दे दिया, लेकिन वह थमे नहीं।
सशस्त्र टुकड़ी तावी नदी के किनारे रुक गई लेकिन राघोबा का दल प्रशासनिक दल के लिए रास्ता साफ़ करने में जुटा रहा। राघोबा के टैंक चिंगास तक पहुँच गए। रामा को इस बात का पूरा एहसास था कि रास्तों का साफ़ होना जीत के लिए बहुत ज़रूरी है, इसलिए वह अन्न-जल के, बिना विश्राम किये रात दस बजे तक काम में लगे रहे और सबेरे छह बजे से फिर शुरू हो गए। 11 अप्रैल 1948 को उन्होंने ग्यारह बजे सुबह तक चिंगास का रास्ता एक दम साफ़ और निर्बाध कर दिया। उनका काम अभी भी पूरा नहीं हुआ था। उसके बाद भी आगे का रास्ता उनको काम में लगाए रहा। रात ग्यारह बजे जाकर उनका काम पूरा हुआ।
सम्मान:
सेकेंड लेफ़्टिनेंट रामा राघोबा राणे ने जिस बहादुरी धैर्य तथा कुशल नेतृत्व से यह काम पूरा किया और भारत को विजय का श्रेय दिलाया, उसके लिए उन्हें परमवीर चक्र प्रदान किया गया। यह सम्मान उन्होंने स्वयं प्राप्त किया।
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